Jaun Elia Shayari
सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर,
अब किसे रात भर जगाती है,
क्या सितम है कि अब तिरी सूरत,
ग़ौर करने पे याद आती है,
कौन इस घर की देख-भाल करे,
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है।
बेदिली क्या यूँ ही दिन गुज़र जाएंगे,
सिर्फ जिंदा रहे हम तो मर जायेंगे।
आज का दिन भी ऐश से गुज़रा,
सर से पाँव तक बदन सलामत है।
कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे,
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे,
यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का,
वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे।
मैं पैहम हार कर ये सोचता हूँ,
वो क्या शय है जो हारी जा रही है।
मुस्तक़िल बोलता ही रहता हूँ,
कितना ख़ामोश हूँ मैं अंदर से।
काम की बात मैंने की ही नहीं
ये मेरा तौर-ए-ज़िंदगी ही नहीं।
मैं ख़ुद ये चाहता हूँ कि हालात हों खराब,
मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई,
ऐ शख़्स अब तो मुझ को सब कुछ क़ुबूल है,
ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई।
और तो क्या था बेचने के लिए,
अपनी आँखों के ख़्वाब बेचे हैं।
किस लिए देखती हो आईना,
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो।
याराँ वो जो है मेरा मसीहा-ए-जान-ओ-दिल,
बे-हद अज़ीज़ है मुझे अच्छा किए बग़ैर,
मैं बिस्तर-ए-ख़याल पे लेटा हूँ उस के पास,
सुबह-ए-अज़ल से कोई तक़ाज़ा किए बग़ैर।